स्त्रीविहीन सृष्टि
सृष्टि का मूल सिद्धांत आधार और आधेय है ; कारण-कर्म-परिणाम है। क्षुद्र जीव अस्तित्व रक्षण के लिए
स्वयं से अधिक महत अस्तित्व पर निर्भर करते हैं। अभाव की स्थिति में, सभाव विनय विनती, स्तुति करते हैं। स्त्री विहीन सृष्टि में सभी अपने-अपने पूज्यों,
ईष्टों, गुरुओं का स्मरण कर
प्रार्थना कर रहे थे जो अंततः त्रिदेवों के लोकों में संग्रहित हो रही थीं.. दैन्य दारुण्य मयी । सभी ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा,विष्णु,शिव व्यथित हो कर हरि से गुहार लगाने लगे। अपनी-अपनी शेष शक्ति से वे सब हरि की
शरण पहुंचे ।
गोलोक में न मैं थी न कोई गोपिका, सृष्टि में स्त्री के लुप्त होते ही सौंदर्य, प्रेम,वात्सल्य, संगीत,कला, संपत्ति और अनुराग भी लुप्त हो गए।
अनुनय
मग्न कृष्ण
अपनी शरण में आये अनेकों लोकों के त्रिदेवों के असहाय मुख
मंडल को देख हरि उनके दुःख भंजन के उपाय
खोजने के लिए विवश हो चुके थे ।
कृष्ण की उदारता ही मेरे उनके प्रति समर्पण का आधार है । क्रूर पुरुष कदापि स्त्री के प्रेम का अधिकारी नहीं हो सकता ।
विश्वरूप कृष्ण सभी के सुख-दुःख के कारण और साक्षी होने से,
स्थिति के मूल कारण का निवारण खोजने के लिए बाध्य थे ।
स्नान कर हरि मेरी प्रसन्नता के लिए, मेरे प्रिय पदार्थों का नैवेद्य
प्रस्तुत कर, मेरा
रोष मिटाने एवं मुझे संतुष्ट करने के लिए उपाय कर रहे थे .. । यदि पदार्थ में ह्रदय को प्रफुल्लित करने की क्षमता होती तो अक्षर,शब्द, कविता,छंद, संगीत,सुगंध और स्तुति का
अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता । कृष्ण तो हृदयों के अणु-परमाणु
को संगीत सिक्त करने में स्वतः निपुण हैं
.. द्वन्द
और विरोधाभासों को आरोह-अवरोह
रूप में संगीतमय करने का कौशल जिसने
प्राप्त कर लिया,
उसके लिए जीवन आनंदमय लीला में परिणत हो जाता है । संयोग
और वियोग श्रृंगार रस के ताने-बाने
बुनते हुए कृष्ण शब्दों के माध्यम से माया प्रसारित कर मेरा आह्वाहन कर रहे थे,-
,-"हे
वरानने !यद्यपि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ,मुझ में तुम्हारा प्रेम भी है
किन्तु तुम्हारी कपट की बातें आज सब प्रकार से प्रकट हो गयीं....तुम
नित्य प्रेम मग्न हो कर कहती थीं हे कृष्ण !तुम मेरे प्राण हो,निरंतर
जीवात्मा हो,ये
सभी बातें इतने शीघ्र कहाँ चली गयीं?हे जगदम्बिके !इस से प्रतीत होता
है कि तुम्हारी सभी बातें झूठी हैं। क्योंकि स्त्रियों का ह्रदय
सब और से छुरे की धार के समान तीव्र होता है। मैं जो कुछ भी कह रहा
हूँ,
वही ध्रुव सत्य है । तुम हमारे पांचों प्राणों की अधीश्वरी और प्राणों से अधिक प्रिय राधा हो । मैं तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं हूँ। अतः तुम्हारे बिना मेरे प्राण अब जा रहे हैं…… क्योंकि अधिष्ठात्री देवि के बिना कौन, कहाँ जीवित रह सकता है ?तुम महाविष्णु की माता, ईश्वरी, मूल प्रकृति, कला से सगुणा और स्वयं निर्गुणा हो। तुम ज्योतिरूपा, निराकारा, भक्तों के अनुग्रह के लिए देह धारण करने वाली, भक्तों की अनेक रुचियों के कारण अनेक मूर्ति धारण करने वाली ; वैकुण्ठ की शोभा महालक्ष्मी; पुण्य प्रदेश भारत में
जननि भारती ; सती एवं पार्वती हो। तुम ही पुण्य स्वरूपा
तुलसी, लोकपावनी गंगा, ब्रह्मलोक में सावित्री और कला द्वारा देवि वसुंधरा हो । गोलोक में तुम्ही समस्त गोपालों की ईश्वरी राधा हो ; तुम्हारे बिना मैं निर्जीव सा हो गया हूँ ; सभी कर्मों में असमर्थ हूँ ; शिव जी तुम्ही शक्ति स्वरूपा को प्राप्त कर शक्तिमान हैं ; तुम्हारे बिना वह शव तुल्य हैं ; तुम वेद माता सावित्री के साथ
रहने पर ब्रह्मा स्वयं वेदकर्त्ता कहलाते
हैं; तुम
लक्ष्मी के साथ नारायण जगत के रक्षक और अधीश्वर होते हैं ; तुम्ही
दक्षिणा के साथ,
यज्ञ भगवान फल प्रदान करते हैं ; पृथ्वीरूप
तुम्हे, शेष,
मस्तक पर धारण कर सृष्टि करते हैं ; तुम्ही
गंगारूपा को धारण कर शिव,
गंगाधर कहलाते हैं। तुम
से ही सारा संसार शक्तिमान है और तुम्हारे बिना शव रूप। तुम
सरस्वति के द्वारा लोग वक्ता हैं ; तुम्हारे
बिना सूत भी मूक रह जाता है । जैसे कुम्हार मिटटी से बर्तन
गढ़ता है वैसे ही मैं तुम प्रकृति के
साथ सृष्टि करने में
समर्थ होता हूँ । तुम्हारे
बिना मैं शक्तिमान न रहकर जड़ हो गया हूँ । तुम सम्पूर्ण शक्ति
स्वरूपा हो, अतः
शीघ्र मेरे समीप आओ । अग्नि की दाहिका शक्ति तुम
हो ; तुम्हारे बिना वह कुछ नहीं कर सकते ; तुम चन्द्रमा में शोभा हो जिसके बिना वह सुन्दर नहीं हो सकते ; तुम सूर्य में प्रभा हो जिसके बिना सूर्य
किरणयुक्त नहीं हो सकते ; हे प्रिया! तुम
रति के बिना कामदेव कामिनियों के बंधु
नहीं हो सकते ।"
अस्तित्व सूक्ष्म से
स्थूल रूप में परिणत होते हैं। ऊर्जा ही कारण रूप धारण
करती है। मैं अशरीरी हो कर शुद्ध प्रकाश रूप में, चेतना रूप में, कृष्ण के क्रिया कलापों की
साक्षी थी। कृष्ण के हृदय के भाव और विनय वचन, मुझे विदेह से सदेह कर रहे थे। कृष्ण के अन्तःकरण
की पुकार मुझे विरल से सघन कर रही थी। उनकी सत्य और सार्थक अनुभूति
मुझे अभिव्यक्त कर रही थी। वचन मेरे अस्तित्व को
स्वरुप देने लगे..शुद्ध शुभ्रा मैं, रूप निर्मित कर अपने
प्रेमी कृष्ण के सम्मुख उपस्थित थी..स्त्री, भाव से कर्षित होती है
कृष्ण इस सत्य और तथ्य में प्रवीण प्रेमी हैं ..इसीलिए तो मैं क्या, सभी गोपिकाएं उनमें तिरोहित हो कर स्वयं को सौभाग्यशालिनी बनातीं
रही हैं..
कृष्ण के गोलोक में सभी ब्रह्माण्डों के त्रिदेव नतशिर हाथ जोड़े उनसे स्त्री जाति के प्राकट्य की विनय कर रहे थे और
कृष्ण मेरा आवाह्न कर रहे थे ..रासेश्वर का रास असम्भव था ; कामना लुप्त हो चुकी थी; क्षमता विदीर्ण हो चुकी थी
..कृष्ण शून्य हो चुके थे ।
अपनी प्रजा के प्रति दायित्व
का निर्वहन करने के लिए बाध्य कृष्ण, नितांत असमर्थ दिख रहे थे ..मेरे
सहयोग के बिना वह कर ही क्या सकते थे ? संतान का ममत्व स्त्री को अभिभूत कर देता है। कृष्ण की निरीहता और संततियों के
विषाद ने मुझ निराकारा को पुनः साकारा कर दिया था।
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