प्रथम दर्शन




                                     कृष्‍ण की कृपादृष्‍टि मेरा केन्‍द्र बिंदु है । परिधि हूं मैं उनकी । जिस दिन प्रथम दर्शन किये, निर्निमेष मंत्रमुग्‍धा मैं जान ही न सकी कि मैं उनकी आराध्‍या हूं या वे मेरे आराध्‍य हृदयेश्‍वर।   एकत्‍व होते हुए भी हम दो रूपों में व्‍यक्‍त थे । परस्‍पर सम्‍मोहित, अभिन्‍न, भावमय दो रूप । आलोड़ित भाव सरिताओं ने  अनंत वर्णों के मादक सुगन्धित पुष्प उद्गमित कर दिए संगीत के अनंत राग-रागिनियाँ प्रकट हो कर थिरकने लगे….. माधुर्य सिक्त स्‍वर लहरी गूंज उठी । जहां-जहां चरण कमल चिह्न भी दृष्टिगोचर हुए, मेरी काम्य भावना ने उन पर पुष्‍पांजलि अर्पित कर उन्हें पूजा । परम आकांक्षा जागी कि इन सुकुमार, मर्मरी, विश्व वन्दित,सौंदर्य निधान चरणों को अपने वक्ष पर धारण कर लूं, चित्‍त में संजो लूं, जिससे मेरे आराध्‍य मदन-मोहन   मेरे प्राण बन कर मुझ में समाहित रहें । कोई क्षण, कोई पल, कोई विधा, कोई अस्‍तित्‍व, कोई तत्‍व हमें  कभी पृथक न करे ।  मात्र यही अभिलाषा  अस्‍तित्‍व में  विद्युत तरंग-सी मेरे अन्तःस्थल से निःसृत हो कर समस्त अभिव्यक्त सृष्टि के अणु-परमाणु में हिलोरें ले रही थी । 
 सृष्टि लीला
 प्रत्येक कल्प, प्रत्येक युग,प्रत्येक ब्रह्माण्ड में सृष्टि का स्फुरण, पालन और भंजन नितांत भिन्न प्रकार से करते हुए भी कृष्ण की परियोजना में जीवन का मूल तत्व एक ही उज्जवल स्वयंभू प्रकाश है प्रकाश से पदार्थ  और पदार्थ से प्रकाश का रूपांतर ही सृष्टि की क्रीड़ा है
अतीत का परिदृश्य स्वतः ही स्मृति पटल पर प्रकाशित हो रहा है भूलोक में वराहकल्प में बहुधा पापियों के अतिभार से पीड़ित भूमि देवी ब्रह्मा की शरण जाती हैं, ब्रह्मा शिव का परामर्श लेते हैं और फिर विष्णु का त्रिदेव अपने सभी देवगणों सप्तऋषियों, मुनियों के साथ गोलोक में मार्गदर्शन के लिए पधारते हैं देवि विरजा से आविष्ट गोलोक के परितः विरजा की लहरों में अनंत कोटि ब्रह्माण्ड स्फुरित और विलीन होते रहते हैं मुक्ता मणियों, रत्नों से युक्त शुभ्रा विरजा के तट का दर्शन ही देवताओं को चकित कर देता है  पद्मराग, इंद्रनील, मरकत मणियों, स्यमन्तक मणियों, रत्नों, कौस्तुभ आदि मणियों की खानों से युक्त गोलोक, शतशृंग पर्वत, अनंत कोटि फलफूल आच्छादित आश्रम, रत्न खचित रति मंदिर,चित्र विचित्र पशु पक्षी, कामधेनु गायों, ऐरावत हाथियों, राजहंसों, कोयलों, श्वेत मयूरों, निर्भीक केसरियों, पुष्ट अश्वों से सेवित, पारिजात वृक्षों से युक्त वृन्दावन की शोभा देख देवि सरस्वती भी निःशब्द हो जाती हैं वृन्दावन के केंद्र में रासमण्डल में सुगन्धित मादक पुष्पवाटिकाओं से सुसज्जित कोटि-कोटि रतिमंदिरों में सुरत  उपभोग के अवर्णनीय  भोग पदार्थ देवदुर्लभ होने के कारण त्रिदेवों को भी विस्मित कर देते हैं वृन्दावन के बत्तीस विशिष्ट वन, हरि पार्षदों के देदीप्यमान विश्राम स्थल, मणि रत्न से प्रकाशित राज मार्ग और   गोलोक  का वैभव देवताओं और ऋषियों को  स्तंभित कर देता है सोलह द्वारपालों से सेवित और तेंतीस मेरी समरूपा गोपियों से सुरक्षित अंतःपुर में अद्भुत स्तोत्रों-पदों का गायन श्रवण कर समस्त देव, ऋषि, विदेह अवस्था में प्रवेश कर जाते हैं परम आनंदित आत्माएं सौंदर्य से अभिभूत हो कर स्वतः ही नृत्य के लिए उद्यत होने लगती हैं
          रासेश्वर के अंतःपुर के  केंद्र में रत्न सिंहासन पर करोड़ों सूर्य सदृश्य प्रकाश देख आगंतुक परम कौतुहल से अश्रुमय हो गए विधाता  धर्मराज और शंकर को साथ ले कर स्तुति करने लगे, -"वरदायक, मंगलप्रद,सर्वत्र स्थित आत्मरूप, तर्क से परे ज्योति रूप, निराकार, सर्वरूप, स्वेच्छामय तेज रूप को प्रणाम है जिस प्रकार धूलि और उसके परमाणुओं की गणना नहीं हो सकती उसी प्रकार आपके सेवकों की गणना असंभव है जिन महाविष्णु   के एक-एक लोम विवर में एक-एक ब्रह्माण्ड स्थित है, वह आपके केवल सोलहवें अंश हैं हे ईश्वर ! आप हमें अपने किशोर, कमनीय, कदम्ब के मूल में स्थित, राधा  और गोपियों सहित  मुरलीधर रूप के दर्शन से अनुग्रहित कीजिये" अश्रुमय स्तुति से संतुष्ट हमारे श्रृंगारमय रूप के दर्शन कर देवगण स्तोत्रों की रचना करने लगे  

Comments

Popular posts from this blog

श्री राधा हूँ

आदर्श पुरुष कृष्ण