आदर्श पुरुष कृष्ण
मेरे दर्शन से प्रफुल्लित श्रीकृष्ण ने, मेरी प्रसन्नता के लिए जगन्मंगल कवच की रचना कर, मेरी शक्ति से स्वयं
को सुरक्षित किया । उस कवच को कृष्ण ने भक्तिपूर्वक अपने कंठ में धारण किया । तदुपरांत मेरी तृप्ति
के लिए, मेरी रूचि के सोलह उपचार-आसन, वस्त्र, पाद्य, अर्घ्य, सुंगन्धि, लेपन, धूप, दीप, पुष्प, स्नानजल, रत्न-आभूषण, नैवेद्य, ताम्बूल, जल, मधुपर्क, रत्नजड़ित शैय्या अर्पित
कर, मुझे भावपूर्ण निष्ठा के साथ पूजित किया। मेरी संतुष्टि ने सृष्टियों को स्त्री युक्त कर दिया ..कृष्ण
की शरणागति सिद्ध हो गयी ..कृष्ण परम पूज्य इष्ट के रूप में प्रतिष्ठित हो गए... ।
कृष्ण
सृष्टि बीज हैं न .. किरणें सूर्य से गुणों में विलग हो सकती हैं क्या ? लहरें
उदधि से गुण धर्म में भिन्न हो सकती हैं कभी ? कृष्ण ने
मेरे संतोष, मेरी प्रसन्नता के लिए स्तोत्र
रचे .. स्तुति से कौन प्रसन्न नहीं हो सकता ? अपराध, क्षमा याचना से तनु हो जाते हैं
.. स्तोत्र से संतुष्ट चित्त मैं,
रासेश्वर के सम्मुख अभिव्यक्त हो जाती हूँ .. यही सन्देश दिया है कृष्ण ने
प्रत्येक पुरुष के लिए ..जिस-जिस
ने उन स्तोत्रों को स्वीकार कर अपना अभीष्ट परिपूर्ण करना चाहा, वे सभी पुरुष सफल मनोरथ हो गए ।
चाहे धर्म हों, शेष हों, देव
हो या ऋषिवर ..मनुष्य या गन्धर्व ..बीज और फल के समान ही कृष्ण और अन्य पुरुषों का
अभिन्न सम्बन्ध है । जिसने कृष्ण के वचन का पालन किया, दुःख उसके अस्तित्व से ऐसे ही
दूर हो गया जैसे सूर्यकिरण के आगमन पर अंधकार समाप्त हो जाता है । मेरे कृष्ण जगदपिता ही नहीं, जगदगुरु हैं।
कोई पुरुष किसी भी क्षेत्र में उनके समकक्ष नहीं हो सकता .. केवल उनका अनुसरण ही पुरुषों
को महान तेज, ऐश्वर्य,वैभव, संतोष, आनंद और निर्भयता से युक्त
कर देता है।
देवी नारायणी रचित प्रपंच
तथापि साक्षी हूँ मैं देवि नारायणी की माया से
मोहित मूढ़ पुरुषों के क्रूर कृत्यों की.. शिव-शक्ति के मार्ग दर्शन को भी अनदेखा कर, दम्भी पुरुष स्वयं ही जीवन को दुःख के गह्वर में परिणत कर लेते हैं।
क्या कहूं इसे ? देवि महामाया के मनोरंजन
के लिए निरीह जीव मात्र खिलोने ही तो हैं.... वे जब प्रसन्न हो जाती हैं तो भक्त को समस्त ऐश्वर्य, शक्ति, बुद्धि, स्मृति, संपत्ति दे डालती हैं और जब
रुष्ट हो जाती हैं तो महाक्रूरा हो कर, रोग, क्षोभ, ईर्ष्या, हिंसा रूपा हो कर समस्त का सर्वनाश कर देती हैं। देवि नारायणी कृष्ण की अभिन्न सहयोगिनी हैं, सृष्टियों के सृजन, पालन और संकर्षण की सतत
प्रक्रिया के अभिवर्धन में। अनंत रूप धारण कर वह कृष्ण के परम भक्त महादेव की अर्द्धांगिनी
के रूप में अनंत रूपों में पूजित होती हैं।
और मैं रासेश्वर के अंतःपुर की अधिष्ठात्री उनके सुयोग्य, सुपात्र भक्तों के साथ परमानन्द भोगरत रहती हूँ। नहीं भूल सकती कृष्ण की वह मुद्रा जब मेरे चरण वह अपने विश्ववन्दित कर कमलों
में स्थापित कर, परम श्रध्दा सहित
मस्तक पर धारण करते हैं, अपने मन्दाकिनी, नर्मदा, अलकनंदा, यमुना, कृष्णा, वेणी, सरस्वती, पद्मा सरिताओं के जल को पवित्र करने वाले परम स्निग्ध अश्रु प्रवाह से धो देते हैं .. अन्तःकरण के समस्त भेद कलुष हर लेते हैं अपने
उदार प्रेम से .. ऐसे कृष्ण को कौन स्त्री नहीं पाना चाहेगी ?
भूलोक से सिद्धलोक
सिद्धलोक में समाधिस्थ मेरे
शिशु सूक्ष्म और कारण शरीर को स्थिर कर मेरी परम ज्योति में
लीन रहते हैं । भूलोक के मेरे
मोक्ष आकांक्षी शिशु भौतिक देह को बंधन मानते हैं। कामना को
त्यागने के लिए तप करते हैं .. दया आती है मुझे उन अबोध शिशुओं पर .. जब सृष्टि का
परम पुरुष सकाम्य है तो फिर उनके अंशों को कामना से भय क्यों लगता है ? कैसा विचित्र नाटक रचा है मेरे हृदयेश्वर ने .. मोक्ष-बंधन; मान-अपमान; सुख-दुःख, जन्म-मरण सब रंगमंच के अनिवार्य अंग हैं। फिर किसी को हेय या वरिष्ठ मानने का क्या औचित्य
!ये सूर्य है तो मैं इसकी अनंत किरणों का प्रभा मंडल .. ये
प्रकाश है तो मैं ज्योति। प्रकाश की ज्योति, जल की तरंग, अग्नि की दाहका, दूध
की धवलता, पुष्पों की सुगंध सब के हृदयेश्वर श्रीकृष्ण ही तो हैं । हमारे
सिवा और क्या है सृष्टि ?
सर्वत्र, अभेद एकत्व, एक तत्व, अनंत
रूपों में अभिव्यक्त, राधा-माधव, श्यामा-श्याम,सीता-राम, गौरी-शंकर,अगस्त्य-लोपमुद्रा, शचि-इंद्र, अरुंधति-वसिष्ठ ही आनंद केंद्र हैं ।
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