श्री कृष्णाकर्षाणि


कृष्ण की श्री राधिका हूँ
कामना कामेश की
योगेश्वर की आत्मा हूँ
धारणा हूँ सृष्टियों की

                                        कौन हूँ मैं ? शून्य के मध्यस्थ ज्योतिर्मय जगत के एक मात्र केंद्र, कृष्ण के हृदय से उद्भूत उनकी कामना कैसा है ये पुरुष ! सौंदर्य की  अप्रतिम अभिव्यक्ति! मोहक, मादक, अद्भुत, आनंदमय, रासेश्वर, पर फिर भी दृष्टि  में निर्लिप्तता का असीम आकाश ! निर्विकार सा ......  शिशु सा विशुद्ध भावधारी..... प्रशांत महासागर सा गंभीर .. हर स्थिति में दृढ आत्मविश्वासी, निर्भीक…… दूर्वादल सा श्यामल, मंद मुस्कान से प्रफुल्लित, वनमाला से सुगन्धित, मयूरपिच्छ आवृत्त रत्न खचित मुकुट से  सुशोभित, पीताम्बर से भूषित, अंग-अंग में दीप्ति, कांति, कोमलता, आनंद की सघन वर्षा…. इस रूप को किसने कैसे, कब, और किस लिए रचा ? नहीं जानती ...पर हाँ, मेरा ह्रदय जानता है .. ये मेरी आत्मा है .. मेरे पंचप्राणों की अभिव्यक्ति है … अन्तःकरण के असीमित निरभ्र अंतरिक्ष का परम शीतल मार्तण्ड है …
                           इसे देखती हूँ तो लगता है ये मेरा ही प्रति रूप है, मेरी कामना की अभिव्यक्ति है .. मेरे अस्तित्व का आधार है यह .. परिधि है मेरी जीवन यात्रा की .. आदि भी.... अंत भी... मध्य भी .. सबका सर्वेसर्वा है कृष्ण... मेरा कृष्ण ..मेरा  रासेश्वर ..योगेश्वर कृष्ण .. जिसे मैं प्रेमवश कहती हूँ... राधेश्वर कृष्ण..हम अपने ही आत्म प्रकाश से प्रकाशित सर्वत्र  व्याप्त चेतन आनंदमय दो अस्तित्व, जिनका केवल अस्तित्व भ्रामक रूप से पृथक दृष्टिगत होता है किन्तु चेतना ..भावना ..आत्मासतत एक है  
गोलोकधाम
राधेश्वर कृष्ण की इच्छा ने एक विशिष्ट सनातन, परम आकर्षक,  अनुपम लोक रच दिया .... श्वेत ज्योतिर्मय लोक .... आनंदमय धाम .. सर्वत्र  सुवासित पुष्पित वाटिकाएँ, फलों के भार से विनम्र मुखी, नतमस्तक, विशाल, सघन, विविध वृक्षों से युक्त वृन्दावन .. शतश्रृंग पर्वत से सुरक्षित अनंत आश्रम .. अनंत रति-मंदिर .. चित्र-विचित्र रत्नखचित स्तम्भ और  वर्तुलाकार सोपान, मणिदर्पणों से युक्त कपाट, उज्जवल कलशों में सुगन्धित मादक द्रव्य, अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र शिविर, मंडलों से संपन्न रत्नमणियों से जड़ित प्रासाद, रत्न-दीप मालाएं... सर्वत्र ...अगणित वर्णों की ज्योति रश्मियों का प्रसार ... शिव, विष्णु, धर्म, नारद और सभी  पार्षद कहते हैं ऐसा मनोहारी  लोक  अनंत ब्रह्माण्डों में किसी आकाश गंगा में नहीं ..  भूमि है तो मणि रत्नों की शैय्या .. अनंत सतरंगी वर्णों के  विचित्र, चित्ताकर्षक  पक्षी गण  जब कलरव करते हैं तो लगता है राग-रागिनियाँ मूर्तिमान हो कर अठखेलियां कर रहे हैं ..
चन्दन, तुलसी, अगुरु, केसर  ऐसे लहकते हैं... महकते हैं  जैसे... कोई उपमा ही नहीं है  इन से उद्भूत परितृप्ति  की .... हमारी सृष्टि परिपूर्ण  आनंदमय है .. किन्तु देह का अस्तित्व हमें दो विपरीत ध्रुव होने की अनुभूति दे रहा है .. ऐसे दो ध्रुव जिन्हे फिर से एकात्म होना है  विदेह नहीं सदेह .....
                                            मेरी ह्रदय जन्य कामना ने चाहा कि इसके कोमल कमनीय चरण अपने उर में स्थापित कर उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करूँ .. पुष्प स्वयं मेरे हाथों में प्रकट हो गए .. और वह मुझे आमंत्रित करता सा आगे  बढ़ गया .. मादक वृन्दावन के सुगन्धित  पुष्पित पथ पर .. मैं दौड़ पड़ी  उसके चरण चिन्ह का अनुसरण ..अनुगमन  करती .. प्रत्येक चरण चिन्ह पर सुगन्धित पुष्प अर्पित करती .. बेसुध .. परतंत्र ..
                                             मौन एकांत में एक स्वर उमड़ा और मेरे अस्तित्व के पोर-पोर में गूंजने लगा .... रा..... धा..रा..... धा ...... रा ... धा....... रा......धा.....
 ये किस का स्वर था जो मेरे ही उर से उद्भूत हो कर गूंज रहा था .. रा’........ हाँ मैं वही तो थी एक श्वेत प्रकाश की आकृति .. धावित थी ....वशी भूत... एक कमनीय किशोर के आकर्षण से बिद्ध.... जो दौड़ रही थी श्यामले मनमोहन किशोर के पीछे ......  उसे अपना प्राण अनुभूत करती हुयी .... ओह तत्क्षण लगा ...विद्युत् सी कौंधी प्लावित उर में ..बोध नहीं था मुझे... कौन हूँ मैं  .. पर अकस्मात अनुभूति ने उत्तर दे दिया मैं वही हूँ जिसका उद्बोधन इस लोक के कण-कण में गूँज रहा है....मैं राधा हूँ .. कृष्ण की राधा
                                          हमारी काम्य दृष्टि ने हमारे अंग-अंग से अनंत   प्रतिरूप उत्पन्न्न कर दिए.... अनंत  कृष्ण ......अनंत राधिकाएँ .. .इच्छा मात्र से ...... ये हमारा धाम था श्वेत प्रकाश से व्याप्त..... प्रकाश के अनंत रंगों वर्णों से  सुसज्जित .. गोलोक .... परिपूर्ण आनंद आप्लावित .. परम परितृप्ति .. परम रस.. परम प्रेममय .. हम सब थिरक रहे थे .. संगीत लहरी स्वतः ही गूँज रही थी सब के अन्तःकरण में ..हम सब अनंत चक्राकार  समूहों में नृत्य मग्न रहे .. कब से कब तक ...नहीं ज्ञात .. समय क्या है ..मुझे  इसका आभास ही नहीं है ... सर्ग का महारास अनंत क्रीड़ा है ..आत्मा ही तो आनंद का आधार है .. अस्तित्व तो प्रकाशमय भी हो सकते हैं .. जलमय भी ..  वायुमय भी .... किंचित प्राकृतिक तत्व निर्मित भी..   मैं अनंत तत्व, विचार और इच्छा मात्र से उत्पन्न कर सकती हूँ .. अनंत सृष्टियाँ कल्पना मात्र से प्रकट कर सकती हूँ .. सर्वेश्वरी हूँ ..सर्वेश्वर की अर्धांगिनी ..
                                  श्रीकृष्ण के आकर्षण से लुब्धित अनेकों गोपिकाओं ने गोलोक में तपस्या कर उन्हें हृदयेश्वर के  रूप में  प्राप्त किया किन्तु, मेरे रोष वश, कृष्ण ने उन्हें देह विहीन कर दिया और उनकी ऊर्जा सृष्टि में योग्य पात्रों में विभक्त कर दी  शोभा, क्षमा, प्रभा, शांति,  कृष्ण में समाहित हो कर शुद्ध ऊर्जा रूप में परिणत हो चुकी हैं

                                      गोलोक के भव्य आनंदमय और ज्योतिर्मय जगत में न शोक है, न अंधकार ..किन्तु प्रेममय हो कर कृष्णमय होने की पिपासा यहाँ प्रत्येक अस्तित्व में नैसर्गिक है ..यदि उनमे ये पिपासा न होती तो वे इस लोक में प्रवेश ही नहीं कर सकते थे…. सृष्टि आत्माओं की पिपासा का ही प्रतिबिम्ब है ये लोक कृष्ण भक्तों की भावना की अनंत परिणतियों का साक्षी है .. स्मरण करो तो आनंद ..,परमानन्द ..नित्यानंद .. न क्षुधा  न पिपासा  न अन्न, न जल, न अग्नि, न वायु .. चिर विश्रांति ..अनंत शांति.. प्रत्येक उर में व्याप्त रहती हैं .. तथापि सृष्टि का प्रयोजन आत्म रंजन ही तो है .. अनेक रंग और वर्ण, अनेक भाव, अनेक कल्पनाएं ही तो इस रासलीला को जीवंत रखती हैं ..


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